- हर बंगाली के जीवन से जुड़ी हैं दुर्गा पूजा की यादें : डॉ भारती सेन
कोलकाता, 27 सितंबर । “मैं कलकत्ता में पैदा हुई थी। हालांकि बचपन और किशोरावस्था चंदननगर के बागबाजार में गुजारी। तो मुझे दुर्गापूजो से ज्यादा जगधात्री पूजा की याद आती है। शादी के बाद मैं 1982 में मुंबई आ गई। तब से पांच दशकों में, मुझे मुंबई में बहुत कम दुर्गा पूजा मिली है।”
डॉ. भारती सेन ने पूजा की स्मृति के बारे में बात करते हुए यह बात कही। उन्होंने कहा कि बंगाली समुदाय की यादों में दुर्गा पूजा हमेशा जुड़ा रहता है। क्रांतिकारी सुनीति चौधरी की बेटी और विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भारती सेन ने हिन्दुस्थान समाचार से दुर्गा पूजा से जुड़ी यादों के बारे में बात की है। भारती का जन्म 1950 में हुआ था। उनके शब्दों में, “उस समय लड़कियों के पास पूजा के बारे में बात करने के लिए ज्यादा समय नहीं था। मैंने सेंट जोसेफ कॉन्वेंट में पढ़ाई की। पूजा की कुछ दिनों की छुट्टी थी। मां चंदननगर अस्पताल में डॉक्टर थीं। पूजा को ऐसे छुट्टी नहीं मिलती थऽ। पिता प्रद्योत घोष मजदूर नेता थे। वह अपने काम में भी व्यस्त रहते थे। इसलिए दुर्गा पूजा घूमने का बहुत अधिक मौका नहीं मिलता था।”
भारती सेन ने कहा, ‘मेरे दिमाग में जगदात्री पूजा की याद उससे कहीं ज्यादा है। क्योंकि, चंदननगर में बहुत बड़ी जगधात्री की पूजा की जाती थी। इनकी भव्यता देखने लायक थी। विशेष रूप से, मुझे विसर्जन के दिन का बेसब्री से इंतजार था। घर की छत या बरामदे से जुलूस वाकई देखने लायक होता है।
इसका मतलब यह नहीं है कि पूजा की कोई याददाश्त नहीं है। मेरी दुर्गा पूजा विभिन्न यादों का एक कोलाज है। उस समय पूजा का गाना कई लोगों के आकर्षण का विषय था। हमारे घर के सामने एक रिकॉर्ड की दुकान थी। सुबह दस बजे से सारे नए गाने बजने लगते थे। तब ध्वनि प्रदूषण कानून नहीं था। दोपहर में मां दुकान मालिक से
गाने को रोकने के लिए कहती थी। मेरी माँ कुछ देर के लिए गाना बंद करवा देती थी जब वह दोपहर में अस्पताल का काम खत्म करके आराम कर रही होती थी।
कपड़े खरीदना भी हमारे पूजा की स्मृति थी, खुशी की बात थी। उसके लिए मेरी मां मुझे कलकत्ता ले जाती थीं। साथ में चचेरे भाई रहते थे जो एक ही उम्र के थे।
एक बार मां अकेले कोलकाता की एक दुकान में कपड़े खरीदने गई थी। लौटने में बहुत देर हो चुकी थी। वह जल्दी से हावड़ा के लिए ट्रेन में चढ़ गई। ट्रेन छूटने के कुछ देर बाद ही उसे अहसास हुआ कि यह गलत ट्रेन थी। लेकिन वापसी का कोई रास्ता नहीं था क्योंकि वह दिन की आखिरी ट्रेन थी। कमरे में मौजूद एक सज्जन ने स्थिति को समझा और उसे अपने घर ले गए। उस समय लैंडलाइन भी बहुत दुर्लभ थी। इसलिए पिताजी और मैं पूरी रात जागते रहे। सुबह जब मां पैकेट लेकर पहुंची तो पापा और मैंने राहत की सांस ली।
महालय से एक रात पहले मैं रेडियो ऑन करके सोने जाती थी ताकि सुबह समारोह शुरू होते ही उठ जाऊं। मां भी महालय सुनती थीं।
दुर्गा पूजा से लेकर जगधात्री पूजा तक मां समेत अन्य डॉक्टर इमरजेंसी ड्यूटी पर रहते थे। उनमें भी मां समय-समय पर टैगोर से मिलने ले जाया करती थीं। अब मैं अंधेरी, मुंबई में हूं। यहां बहुत कम पूजा होती है। पिछले साल हमने महामारी के कारण अंधेरी में पूजा नहीं की थी। इस बार मैं पूजा करने के लिए दिन गिन रही हूं।”