– सीताराम अग्रवाल (वरिष्ठ पत्रकार )
सन् 1981 की बात है। दैनिक छपते -छपते के संपादक व मालिक श्री विशम्भर नेवर एक सुदर्शन युवक को मेरे पास लाये और कहा – ये हरिराम पाण्डेय हैं। दैनिक विश्वमित्र के संपादकीय विभाग में काम करते थे। अब यहां काम करने के इच्छुक हैं। आप जरा इनका काम देख लीजिए। ज्ञातव्य है कि मैं उस समय इस अखबार का सम्पादकीय प्रभारी था, जो उस समय रवीन्द्र सरणी (कोलकाता ) स्थित नाज सिनेमा के सामने अवस्थित था। मैं दैनिक सन्मार्ग में कई वर्षों तक काम करने के बाद इसमें आया था। ये थी हरिराम पाण्डेय से मेरी पहली मुलाकात। मैंने इनका काम देखा और ये मेरे साथ काम करने लगे। काम में दक्ष थे, इसमें कोई संदेह नहीं। पर छुट्टी लेने में माहिर थे, जो कभी-कभी मेरे लिए परेशानी का कारण हो जाता था।
काफी दिनों तक काम करने के बाद मैं पत्र सूचना कार्यालय ( P. I. B. ) में चला गया। बाद में जब कोलकाता से जनसत्ता निकलने की सुगबुगाहट होने लगी तो सन्मार्ग के तत्कालीन प्रबंध निदेशक श्री राम अवतार गुप्त ने मुझे बुलाया और अधिकार के रूप में कहा- मैं अब तुम्हारी कोई बात नहीं सुनूंगा, तुम्हे यहां काम करना होगा। मैं यहां बता दूं कि पहली बार जब मैंने सन्मार्ग छोड़ा था, तो उन्होंने काफी समझाया था। खैर, इस बारे में विस्तार से फिर कभी। इस प्रकार मैं पुन: सन्मार्ग में आ गया और पाण्डेय जी भी छपते-छपते छोड़कर सन्मार्ग में आ चुके थे। इसके बाद हमलोगों ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक एक साथ काम किया। इस दौरान की काफी खट्टी-मीठी यादें हैं। हमलोग एक दूसरे की खुल कर आलोचना किया करते थे। कई विषयों पर गंभीर बहस भी होती थी। सच कहूं तो इनके पास ज्ञान का भंडार था, जिसमें से कुछ पाने के लिए मैं इन्हें छेड़ता रहता था। खाने के शौकीन थे। मेरी तरह शाकाहारी होने के कारण हम दोनों की जमती थी। एक बार प्रेस क्लब, कोलकाता में खाना खाने के बाद भी जब काफी संख्या में रसगुल्ले खा लिये तो कुछ लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया।
सन्मार्ग के आरम्भिक वर्षों के दौरान ये काफी आर्थिक संकट में रहे , पर अपनी कर्मठता, परिश्रम व लगन की बदौलत इन्होंने सन्मार्ग में न सिर्फ संपादक का पद प्राप्त किया, बल्कि पूरे परिवार को समृद्ध बनाया। यहां तक कि अपने बड़े बेटे को डाक्टर बनाया, जो आज कैंसर स्पेशलिस्ट हैं। सन्मार्ग से अवकाश प्राप्त करने के बाद भी मेरा उनका सम्पर्क बना रहा। अभी करीब 10 दिन पहले ही जब उनका हाल जानने के लिए फोन किया तो उन्होंने जवाब दिया- हमार बुलन्द आवाज से बुझात नइखे। एकदम फिट बानी। उस समय मुझे लेशमात्र भी संदेह नहीं था कि मैं अंतिम बार उनकी आवाज सुन रहा हूं। मुझे यह समझ में नही आया कि करीब 40 वर्षों का यह साथ कुछ ही दिन बाद छूट जायेगा। साथ ही यह भी आभास नहीं हुआ कि हमेशा हंसमुंख रहनेवाला यह दोस्त अपनी विशाल पीड़ा को छुपा कर अनन्त यात्रा पर जाने से पहले मेरे मन में वही छवि बनाये रखना चाहता है। मुझसे तो 4 वर्ष छोटा था, पता नहीं जाने की ऐसी क्या जल्दी थी। बुरा हो कोरोना का, जिसने असमय में ही (13 मई ) ऐसे जीवन्त व्यक्तित्व को हमसे छीन लिया।
जाओ मित्र, जहां भी रहो, खुश रहो। काल तुम्हारा शरीर भले हमसे छीन ले, परन्तु तुम्हारी यादें नहीं छीन सकता। बंधु हरिराम तुम यादों में हमेशा जीवित रहोगे।