राष्ट्र गौरव के उत्कर्ष में राष्ट्रीय शिक्षा नीति मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाने में सक्षम: कुलपति डॉ शुक्ल

कोलकाता, 24 फरवरी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से भव्य, श्रेष्ठ और विजयी भारत का निर्माण करना हमारा लक्ष्य है, जो विश्व को त्राण दिलाने की क्षमता रखता है। यह कहना है महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. रजनीश कुमार शुक्ला का। अखिल भारतीय प्रज्ञा प्रवाह के पश्चिम बंगाल के दक्षिण बंग इकाई लोक प्रज्ञा की शाखा लोक प्रज्ञा हिन्दी चर्चा केंद्र के आभासी अखिल भारतीय सभा में कुलपति डॉ. शुक्ल बतौर मुख्य वक्ता राष्ट्रीय शिक्षा नीति: राष्ट्र गौरव का उत्कर्ष विषय पर बोल रहे थे। डॉक्टर शुक्ल ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत भारत ऐसे

मनुष्य का निर्माण करना चाहता हैै, जो आत्म कल्याण के साथ-साथ अपने परिवेश के प्रति संवेदनशील और सचेतन हो, जो इस राष्ट्र के गौरव के प्रति समर्पित हो। प्रो. शुक्ला ने धर्मपाल को स्मरण करते हुए कहा कि 1835 ईस्वी में मैकाले योजना के आने से पूर्व ही धर्मपाल ने 1821 से 1828 में
तीनों प्रेसीडेंसी में हुए सर्वे के आधार पर पहले से यह जान लिया था कि देश की शिक्षा नीति को बदलने की आवश्यकता है। धर्मपाल का कहना था कि शिक्षा बांट – बांट कर टुकड़ों में नहीं बल्कि उन्होंने पहली बार कहा था कि शिक्षा होलेस्टिक अप्रोच में होनी चाहिए इस बात को समझा और समझाया था । मनुष्य को पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुसार पुरुषार्थी बने और अध्यात्म, तकनीक, धर्मशास्त्र, समाज शास्त्र, विज्ञान सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करे ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके। प्रो. शुक्ला का कहना है कि जब भारत आजाद हुआ तो देश की साक्षरता 18 फीसदी थी। 1828 से 1847 तक साक्षरता 90 प्रतिशत से 18 प्रतिशत तक घट गई थी।इस आधार पर ऐसी शिक्षा नीति को खारिज करना अत्यंत आवश्यक था। ऐसी शिक्षा को खारिज करना इसलिए भी आवश्यक हो गया था कि गांधी जी ने आंदोलन के दौरान कहा था शिक्षा के रमणीय वृक्ष को वृतानियों ने नष्ट कर दिया है। जिससे भारतीय जनता दुखी थी। डॉ. शुक्ल ने कहा कि रवीन्द्र नाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र चटर्जी, स्वामी विवेकानंद, ऋषि अरविंद जैसे मनीषियों ने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को बदलने का सपना देख था। उनका मानना था पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली ने हमारा और हमारी जाति का बौद्धिक क्षरण किया है ,इस वजह से भी इसे बदलना चाहिए। डा.शुक्ल ने कहा कि स्वामी विवेकानंद सामाजिक प्रश्नों के आलोक में जिस शिक्षा की बात करते हैं या आंनद मठ में बंकिमचंद्र चटर्जी संन्यासियों संतान दल के माध्यम से जिस शिक्षा की बात करते हैं उसे याद रखने की आवश्यकता है। हमारे ग्रंथों में कहा गया है शूद्रों और दलितों को संस्कृत पढ़ना चाहिए ताकि उनको गौरव और सत्व का ज्ञान प्राप्त हो। आजाद भारत में शिक्षा नीति बनाते समय महामना मदन मोहन मालवीय जी की जीवन ध्येय को भी नहीं भूलना चाहिए । डॉक्टर शुक्ल ने कहां कि भारत की बहुभाषिकता ही उसकी ताकत है। नई शिक्षा नीति की 70 वर्षो का अनुभव बताता है जिन्होंने अपने मातृभाषा में पढ़ाई की तथा अपनी मातृ भाषा में काम किया आज वह विकसित देशों में शुमार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की समूचे दुनिया में तकरीबन ढाई लाख स्थानों पर चर्चा का विषय बना जिसमे 33 करोड़ लोगों ने सहभागिता दर्ज कराई। उनका कहना है कि शिक्षा न तो टुकड़ों मे मिलती है और न ही किताबों से। देश में ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो व्यक्ति जिस कला मे निपुण है उसकी वह कला उभर कर सामने आये । प्रो. शुक्ला का कहना है कि इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत ड्रॉप आउट का सफाया हो सकता है यानी शिक्षा के क्रम में बाधा के अवसर समाप्त करने वाली यह शिक्षा नीति है , व्यक्ति के विकास से समाज का विकास होता है और समाज के विकास से राष्ट्र का निर्माण होता है, इस वजह से देश को ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर बना सके न कि गुलाम या कृत दास। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिए इच्छुक कला के विद्यार्थी विज्ञान के विषयों की भी शिक्षा ले सकते हैं और विज्ञान विषयों के विद्यार्थी कला के विषयों की। इच्छाओं की पूर्ति तभी होगी जब उस पर विवेक का नियंत्रण होगा। नहीं तो उत्तम कुल पुलस्त्य का पौत्र और विश्वश्रवा का पुत्र ज्ञानी रावण भी मनुष्य नहीं राक्षस बन सकता है। प्रज्ञा प्रवाह के क्षेत्र संयोजक अरविंद दास ने स्वामी विवेकानंद पर चर्चा की । विषय प्रवर्तन डॉ. ऋषिकेश राय ने किया। .धन्यवाद ज्ञापन दक्षिण बंग लोक प्रज्ञा सह संयोजक प्रोफ़ेसर डा सोमशुभ्र गुप्ता ने किया शांतिि मंत्र का
पाठ प्रबीर मुखर्जी ने किया। आरंभ में ब्रह्मनाद डॉ गिरिधर राय का था जबकि स्वदेश मंत्र का पाठ लक्ष्मण ढूंगले ने किया। सरस्वती वंदना रीमा पांडेय का था जबकि राष्ट्र बंदना कामायनी संजय ने किया , संचालन डॉ आनंद पांडेय ने किया। ऋतम वेब पोर्टल के इस लिंक
से देश के कई प्रांतों से तकरीबन तीन हजार छात्र छात्रा शिक्षक प्राध्यापक व अन्य बौद्धिक जन जुड़े थें।

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